Monday 6 June 2011

उदासी

शहर की भीड़ बासी सी लगती है,गाँव की ख़ामोशी उदासी सी लगती है ,

जिन्दगी की भागमभाग में जिन्दगी बदहवासी सी लगती है ,
बढती भीड़ में अपनी मौजूदगी गुमशुदा सी लगती है ,
खुल कर जीने की तड़प में,हर जिम्मेदारी बेवजह सी लगती है ,
एक मंजिल तक पहुँच कर ,दुसरे मंजिल को पाने कि चाह में ,
मंजिलों की तादाद अच्छी खासी सी लगती है ,

इन्सान को इन्सान से ही है नफरत ,
इंसानियत की बात अब गुस्ताखी सी लगती है ,
स्वार्थ भरे माहौल में ,सामाजिक मुद्दों की बातें भी अब सियासी सी लगती है ,
आधुनिकता की अंधी दौड़ में ,पहाड़ों,पेड़ों की हवा भी जहरीली सी लगती है ,
प्रदुषण भरे वातावरण में ,अब तो नाश्ते में भी दवा लगती है ,
महंगाई और मिलावट ने, अंतर मिटा दिया गाँव और शहर का ,
स्वस्थ और लम्बी उम्र की कामना अब बददुआ सी लगती है ,
सुरक्षा की बात ना करो कही भी कुछ भी हो जाये ,
स्वर्गवास होने में अब कहाँ 'काशी' लगती है ,
                                               " कुमार "

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