शहर में कितनी भीड़ -भाड़ है ,
गाँव में सूनी पड़ी चौपाल है ,
शहरों में कंक्रीटों का बढ रहा जंगल है ,
गाँवों में पेड़ों की हो रही उमर कम है ,
यहाँ ऊँची ईमारतों का जाल है ,
गाँव में वही घास -फूस की छत और पुआल है ,
गाँव कहते किसे है ,जहाँ किसान रहते है! ,
जमींदार जो थे वो तो कब के चल गए ,
शहरों-कस्बों में आके दलाल बन गए ,
दलाल बन के और मालामाल हो गए ,
किसान ,किसान अब भी वहीं है ,
अपने खून पसीने से सींच रहा जमीं है ,
किसान की औलादें अब नहीं बनना चाहते किसान ,
वो अब उनके खलिहानों में बस बनाते हैं मकान ,
या फिर करतें हैं गाँव से पलायन ,
शहरों की चका-चौंध में ढूंढ़ते है जीवन ,
शहरों में ही क्यूँ अमीरी का बोलबाला है ,
गरीबी और क़र्ज़ ने क्यूँ किसानो को दबा डाला है?
सुविधा,सम्पन्नता,समृधी कब किसानों के कदम चूमेगी ,
हमारी सरकारों के कानो में कब इस बात की जूं रेंगेगी.
" कुमार "
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